"हे राम !"
एक गरीब ब्राह्मण को अपनी कन्या का विवाह करना था.
सोचा,
इस नवरात्र में कथा करते हैं,
श्रोता आये, तो कुछ पैसे भी आ जायेंगे,
नहीं भी आये, भक्ति तो हो ही जाएगी,
भगवान मेरी व्यथा तो सुन ही रहे होंगे,
इस बहाने मेरी कथा भी सुन लेंगे.
ऐसा विचार करके एक मंदिर में बैठ कर कथा आरम्भ कर दी.
मंदिर भगवान राम का था.
श्रोता तो बहुत कम आये,
पर कहते हैं, भाव देखकर भगवान आ गए.
राम जी ने कथा के साथ व्यथा को भी सुन लिया
और हनुमान को निदेशित किया कि
भक्ति का ऐसा रस लाएँ कि
रामनवमी तक भक्त कम से कम लाख रुपये उस ब्राह्मण को दे जाएँ.
सुना है,
भगवान के यह कहते समय मंदिर की परिक्रमा करते एक भक्त ने सुन लिया
और वह भक्त साँवलिया का भी सेठ निकला.
सोचा, क्यों न कथा आयोजन का प्रायोजन कर लिया जाए,
पुण्य का पुण्य भी हो जाए, पैसे के पैसे मिल जाएँ.
पंडित जी के पास पहुँचकर सेठ ने कहा-
"महाराज,
आप तो सीधे आदमी ठहरे,
सोचता हूँ कि मैं आपकी कथा का प्रायोजक बन जाऊँ,
मैं एकमुश्त पचास हजार आपको देता हूँ,
बाकी जो राई भर दान मिलने वाला है,
प्रसाद के नाम पर उसे लेने रखने की जिम्मेदारी मेरी होगी,
ताकि उससे आगे और धर्म कर्म कर सकूँ."
पंडित जी ने सोचा,
आदमी कितना दयालु और धर्मात्मा है,
और श्रोताओं से तो बहुत दान की उम्मीद है नहीं.
सहमत हो गए.
सेठ जी ने पचास हजार रुपए पंडित जी को दे दिये.
नवरात्र के बाद रामनवमी भी बीत चली,
लाख तो छोड़ें, हजार रुपये भी न आए.
सेठ को इतने घाटे की उम्मीद न थी,
आस्था डिग गई,
क्रोध में सोचा ऐसी झूठ बोलने वाली मूर्ति का ही खंडन कर दे.
शुरुआत हनुमान की मूर्ति से करने ही वाला था कि
हाथ हनुमान के पग से चिपक गए.
सेठ चिल्लाने लगा,
"हे राम, रक्षा करो!"
पार्श्व के गर्भगृह से राम की प्रतिमा से आवाज़ आई,
"हनुमान, यह क्या है?"
हनुमान जी बोले-
"प्रभु,
आपके आदेशानुसार पंडित को भक्त से पचास हजार दिला चुका हूँ,
बाकी पचास हजार भी आज दिलाने वाला हूँ."
सोचता हूँ,
क्या सचमुच
राम के पास पंडित के भाव वाले कम,
सेठ के भाव वाले अधिक नहीं हो गए हैं.
संकलित
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