ऐसे भी समझ सकते है ,हमारे नक्षत्रों को
नक्षत्र लोक सदा से आकर्षित, विस्मित व सम्मोहित करता रहा है।
*नक्षत्र का क्या अर्थ है?*
एक सामान्य अर्थ है, तारागण, जो भी आकाश या अंतरिक्ष में विद्यमान हैं। अनंत ब्रह्मांड में ये असंख्य हैं।
दूसरा विशिष्ट अर्थ है, तारावली के वे प्रमुख तारे, जो पृथ्वी के सापेक्ष चंद्र के भ्रमण पथ में पड़ते हैं। ज्योतिष की सामान्य गणना में ये सत्ताइस हैं।
*दोनों ही स्थितियों में तारे नक्षत्र हैं। नक्षत्र नक्षत्र क्यों है?*
एक अर्थ है कि वे अक्षय हैं, क्षयशील नहीं हैं, इसलिए वे नक्षत्र हैं। परंतु संसार में भला क्या है, जो अक्षय है, क्षयशील नहीं है।
दूसरा अर्थ है कि वे न-क्षत्र हैं, नभ ही उनका क्षत्र है, कोई अन्य क्षत्र है ही नहीं। या कि पूरा नभमंडल ही उनका क्षेत्र है।
एक तीसरा भी संभावित अर्थ है, वे नक्त अर्थात् रात्रि के क्षत्रप हैं।
एक चौथा भी संभावित अर्थ है, वे निशामय तमस् के त्राता हैं, निवारक हैं।
सब शब्दों का खेल है। जन-गण-मन के लिए तो नक्षत्र लोक तारों भरा आकाश है। आकाश भी पूरा अंतरिक्ष है। वैदिक काल में जो तीन लोकों की कल्पना है, उसमें भूलोक या पृथ्वीलोक से ऊपर दो और लोक हैं- द्युलोक व अंतरिक्ष लोक। गायत्री मंत्र में ये क्रमशः स्वर्लोक व भुव: लोक हैं। तो वहां अंतरिक्ष बाह्य आकाश नहीं, बीच का आकाश है। जहां तारागण मिलेंगे, वह द्युलोक है, क्योंकि वहाँ द्युति है। वह ऐसा सुंदर द्युतिमान है कि मन ने उसे स्वर्ग लोक मान रखा है।
पश्चिम की दृष्टि से देखें, तो तारों की दुनिया परियों की दुनिया है। परियाँ वहीं कहीं बसती हैं और कभी-कभी धरती पर भी उतरती हैं। बस बच्चे उन्हें देख पाते हैं। बालसुलभ मन ही उन पर विश्वास जो करता है।
पूरब की दृष्टि से देखें, तो तारों की दुनिया अप्सराओं की दुनिया है। अप्सराएँ वहीं इंद्रसभा में नृत्य करती हैं। अप्सराएँ कामनाओं भरे मन की कल्पना हैं। युवा मन प्रौढ़ होकर भी, विरक्ति में भी उसकी कल्पना करते रहे हैं, क्योंकि कामना तो वहीं है।
ये देव भी नक्षत्र हो सकते हैं। ये अप्सराएँ भी नक्षत्र हो सकती हैं। मन कहता है, नक्षत्र शब्द न पुल्लिंग है, न स्त्रीलिंग. ग्रहों की दृष्टि से देखेंगे, तो वे पुल्लिंग हैं, क्योंकि सब ही ग्रह पुल्लिंग हैं। तारों की दृष्टि से देखेंगे, तो वे स्त्रीलिंग हैं, क्योंकि ज्योतिष के अधिकांश नक्षत्र स्त्रीलिंग हैं। नाम भी बहुधा मधुर हैं- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वा आषाढा, उत्तरा आषाढा, श्रावण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती।
पुरानी किताबें मधुर रूपक रचती हैं, स्मृति के लिए, अवबोध के लिए। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष की 27 पुत्रियां थीं, जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ। चंद्रमा को सबसे समान प्रेम करना चाहिए था, लेकिन वह प्रेम ही क्या, जो समानता का विभाजन कर चले। वह अंतिम व छोटी पुत्री रोहिणी से अधिक प्रेम करते थे। इसी कारण चंद्रमा की अन्य 26 पत्नियों ने पिता राजा दक्ष से शिकायत की। राजा दक्ष के बार-बार अनुरोध के बावजूद चंद्रमा ने अपना स्वभाव नहीं बदला, जिससे राजा दक्ष ने क्रोधित होकर चंद्रमा को क्षयमान होने का शाप दे दिया। चंद्रमा अब रोज घटने लगा, परंतु फिर सहसा रोहिणी के साहचर्य का चमत्कार हुआ, वह फिर से बढ़ने लगा। दक्ष का शाप चंद्र को जितनी दूर तक घटाता जाता है, रोहिणी का प्रेम उतनी ही दूर तक बढ़ाता जाता है।
अतृप्त प्रेम की अपनी क्षयमानता है, तृप्त प्रेम की अपनी वर्धमानता है। कभी विपरीत भी हो रहता है, तृप्त प्रेम क्षयमान हो जाता है। अतृप्त प्रेम वर्धमान होता जाता है। जिसे मिटना चाहिए, वही अमिट हो जाता है।
एक अर्थ कहता है कि नक्षत्र क्षयमान नहीं हैं। क्या पता, इस अनंत ब्रह्मांड में सचमुच कोई नक्षत्र ऐसा हो ही। सच तो यह है कि बस अनंत संपूर्ण ब्रह्मांड ही ऐसा हो सकता है, जो क्षयमान न हो, अन्यथा तो उसके हर अंश में क्षयमानता है। जीवन हो, जगत् हो, सब कुछ ही।
पर जीवन क्षयमान होकर भी जगत् में नक्षत्र सजाना नहीं छोड़ता। अँधेरों में उसकी द्युति कौंध जो जाती है। हर आँख किसी को अपनी आँख का तारा बनाये होती है। यह और बात है कि तारा मिल कर भी कभी मिट जाता है, कभी टूट कर भी सदा के लिए नक्षत्र बन जाता है। चंद्र व नक्षत्र की कहानी प्रतीक है। जिस दिन कोई किसी चंद्र को देखता है, उसके चक्षु में कोई दीप्त नक्षत्र बस ही जाता है। जिस दिन वह नक्षत्र धुंधलाता है, चंद्र भी चंद्र नहीं रह जाता।
सुनो फाल्गुनी!
तुम मघा, ज्येष्ठा या आर्द्रा बन कर आती ही रही हो,
मैंने विशाखा से कृत्तिका बनायी है,
स्वाती की बूँदों से आश्लेषा भरणी बनायी है,
कभी मेरे हस्त से अनुराधा न सही, चित्रा ही बन जाना,
मैं किसी का पुष्य नहीं,
कोई दुर्लभ अभिजित नहीं,
मेरी अभिव्यक्ति भी मूल नहीं,
परंतु तुम तो पुनर्वसु हो,
सो सुनो, श्रावणी,
पूर्वा व उत्तरा जिनके भेद हों, रहें,
तुम तो अपूर्वोत्तरा हो, सदारोहिणी,
अत: जगत् की धनिष्ठा बन कर आना,
जीवन में शतभिषा बन कर छा जाना।
http://sanjaygeelastrology.com
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